रहीम पिछले कुछ सालों से पैसों की तंगी से जूझ रहा था। उसके छोटे से परिवार में एक बीवी और चार बच्चे थे। हर साल ईद उल-अज़हा आते ही रहीम के दोस्त और पड़ोसी बकरा क़ुर्बानी की तैयारी में लग जाते थे। इस साल भी रहीम ऐसा ही करना चाहता था लेकिन काम धंधा ठीक नहीं चलने के कारण इस बार उसके पास पैसे नहीं थे।
एक दिन रहीम की बीवी ने रात को बेडरूम में कहा, "इस बार हम बकरा क़ुर्बानी नहीं कर पाएंगे तो क्या लोग हमें कुछ नहीं कहेंगे?" रहीम ने सिर झुका लिया, "लोग तो कुछ भी कहेंगे लेकिन हमारी हालत तो अल्लाह जानता है।"
अगले दिन रहीम की मुलाकात एक हाजी साहब से हुई जो एक पशु प्रेमी और दयालु व्यक्ति थे। रहीम ने उनसे अपनी परेशानी बताई। हाजी साहब मुस्कुराए और बोले, "बेटा, बकरों की क़ुर्बानी तशद्दुद है और जानवरों की क़ुर्बानी तो इस्लाम में ज़रूरी है ही नहीं। अगर पैसों की तंगी है तो कर्ज लेकर एक जानवर की जान लेना कानून की नजर में डबल क्राइम है। इस्लाम में यह साफ है—जो लोग कर्ज में हों या गरीब हों, उन पर रिवायत निभाने का कोई बोझ नहीं है बल्कि अपने परिवार की देखभाल करना उनका फ़र्ज़ है।"
रहीम की आँखों में आँसू आ गए उसने पूछा, "लेकिन लोग क्या कहेंगे?" हाजी साहब ने कहा, "लोग तो कुछ भी कहेंगे, लेकिन अल्लाह तो तुम्हारे दिल को देखता है। सूरा आल-इमरान (3:29) में कहा गया है—'तुम अपने दिल की बात छुपाओ या बताओ, अल्लाह तो सब कुछ जानता है।' तुम्हारी मंशा और संघर्ष ही असल में मायने रखते हैं, न कि बकरों की क़ुर्बानी।"
रहीम को यह सुनकर अच्छा लगा फिर उसने अपनी बीवी को समझाया कि सच्ची ईद तो दिल की शुद्धता, जानवरों के ऊपर दयालुता और दूसरों की मदद में है। उसने अपने पड़ोसियों को भी समझाया कि ईद में बकरों की क़ुर्बानी करना तशद्दुद है।
☘️ वीगन सुदेश